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देवता: मरुतः ऋषि: गोतमो राहूगणः छन्द: जगती स्वर: निषादः

त उ॑क्षि॒तासो॑ महि॒मान॑माशत दि॒वि रु॒द्रासो॒ अधि॑ चक्रिरे॒ सदः॑। अर्च॑न्तो अ॒र्कं ज॒नय॑न्त इन्द्रि॒यमधि॒ श्रियो॑ दधिरे॒ पृश्नि॑मातरः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ta ukṣitāso mahimānam āśata divi rudrāso adhi cakrire sadaḥ | arcanto arkaṁ janayanta indriyam adhi śriyo dadhire pṛśnimātaraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ते। उ॒क्षि॒तासः॑। म॒हि॒मान॑म्। आ॒श॒त॒। दि॒वि। रु॒द्रासः॑। अधि॑। च॒क्रि॒रे॒। सदः॑। अर्च॑न्तः। अ॒र्कम्। ज॒नय॑न्तः। इ॒न्द्रि॒यम्। अधि॑। श्रियः॑। द॒धि॒रे॒। पृश्नि॑ऽमातरः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:85» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (उक्षितासः) वृष्टि से पृथ्वी का सेचन करनेहारे (पृश्निमातरः) जिनकी आकाश माता है (ते) वे (रुद्रासः) वायु (दिवि) आकाश में (सदः) स्थिर (महिमानम्) प्रतिष्ठा को (अध्याशत) अधिक प्राप्त होते और उसी को (अधिचक्रिरे) अधिक करते और (इन्द्रियम्) धन को (दधिरे) धारण करते हैं, वैसे (अर्कम्) पूजनीय का (अर्चन्तः) पूजन करते हुए आप लोग (श्रियः) लक्ष्मी को (जनयन्तः) बढ़ा के आनन्दित रहो ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु वृष्टि का निमित्त होके उत्तम सुखों को प्राप्त कराते हैं, वैसे सभाध्यक्ष लोग विद्या से सुशिक्षित हो के परस्पर उपकारी और प्रीतियुक्त होवें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथोक्षितासः पृश्निमातरः ते रुद्रासो वायवो दिवि सदो महिमानमध्याशत वाधिचक्रिर इन्द्रियं दधिरे तथार्कमर्चन्तो यूयं श्रियो जनयन्त आनन्दत ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) पूर्वोक्ताः (उक्षितासः) वृष्टिद्वारा सेक्तारः (महिमानम्) उत्तमप्रतिष्ठाम् (आशत) व्याप्नुवन्ति। अत्र बहुलं छन्दसीति श्नोर्लुक्। (दिवि) दिव्यन्तरिक्षे (रुद्रासः) वायवः (अधि) उपरिभावे (चक्रिरे) कुर्वन्ति (सदः) स्थिरम् (अर्चन्तः) सत्कुर्वन्तः (अर्कम्) सत्कर्त्तव्यम् (जनयन्तः) प्रकटयन्तः (इन्द्रियम्) धनम्। इन्द्रियमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (अधि) उपरिभावे (श्रियः) चक्रवर्त्यादिराज्यलक्ष्मीः (दधिरे) धरन्ति (पृश्निमातरः) पृश्निरन्तरिक्षं माता येषां वायूनां ते ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायवो वृष्टिहेतवो भूत्वा दिव्यानि सुखानि जनयन्ति तथा सभाध्यक्षादयो विद्यया सुशिक्षिताः परस्परमुपकारिणः प्रीतिमन्तो भवन्तु ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायू वृष्टीचे निमित्त बनून सुख देतात तसे सभाध्यक्षाने विद्येने सुशिक्षित होऊन परस्पर उपकार करावा व प्रेमाने राहावे. ॥ २ ॥